यूँ तो सीधी सीधी निंदक वंदना नहीं की, पर ‘निंदक नियरे राखिये’ की लुकाठी लेकर कबीर ने आत्‍म परिष्‍कार की राह के अनगिनत गड़बड़ झाले जला डाले। ब्‍लागरी के कबीरदास भी इसी मति के विवेकी गुरूघंटाल हैं। कबीर ने तो खुद को कहा था, ‘जाति जुलाहा मति का धीर’। इस ब्‍लागर कबीर की मति का ही अनुमान लगायें, क्‍योंकि आज के सर्वसमाज में तो ‘जाँति पाँति पूछै नहिं कोई, ह‍‍रि का भजै सो हरि का होई’।

Swapnalok
विवेक सिंह के ब्लॉग का स्क्रीनशॉट

अपने इस कबीर को कह तो मैं ‘कबीर’ रहा हूँ, पर निन्‍दक वन्‍दना की ऐसी ही शैली का प्रयोग जमकर ‘तुलसी’ बाबा अपनी खलवन्‍दना में करते हैं। अपने विवेक से मैं समझ रहा हूँ ‘निन्‍दक नियरे राखिये’ का कूटनैतिक निहितार्थ। मैं समझ रहा हूँ निन्‍दकों को थपकी देकर सुलाने की आपकी मधुर चाल। अपनी निन्‍दा न हो, इसका अच्‍छा उपाय कर लिया है आपने इस मनोहारी नम्रता से। सच बताइये यह निन्‍दक-वन्‍दना पूज्‍य-भाव की है? सात्विक श्रद्धा की है? अथवा यह सर्प को मोह लेने की चाल है, जिससे वह डँस न सके। मेरे प्‍यारे ब्‍लॉगर, यह आत्‍म-समर्पण नहीं, पूर्व-समर्पण है।

निंदक वंदना – सायास या अनायास?

हे मेरे चतुरंग चिट्रठाकार! सच कहो कि अनायास ही यह निन्‍दक वन्‍दना हो गयी अथवा सायास उद्यम है यह। कहीं इस वन्‍दना में जो ब्‍याजस्‍तुति है, परिहास की कपट-लीला है, उसमें निन्‍दकों को मन ही मन चिढाने की चाल तो नहीं । कहीं उन्‍हें आईना तो नहीं दे रहे कि वो इसमें आकृति देखें और अपना सा मुँह लेकर रह जॉंय। कहीं ऐसा तो नहीं कि सम्‍मान की ओट से भेद के बाण चलाये जा रहे हो आप?

मैं जानता हूँ कि निन्‍दक जीवन-सरिता की मँझधार में छिपे ग्राह हैं। वे जीवन श्रृंखला के बीच की कडी हैं, उन्‍हें हटाइयेगा तो श्रृंखला का ही विच्‍छेद हो जायेगा। पर इन्‍हें वन्‍दनीय न बनाइये प्रियवर! यद्यपि मैं समझ रहा हूँ थोडा-थोडा कि निन्‍दक को पास बिठाने का संकल्‍प आत्‍मविश्‍वास का नहीं, आभास का है। शायद यह आपकी खेचरी-मुद्रा है स्‍वयं-सिद्ध! यह निन्‍दक के प्रति विनय नहीं, विनय का व्‍यायाम लगता है।

आप बहुत चतुर हो श्रीमन्! बेचारे निन्‍दक क्‍या जानें कि जाने अनजाने उनकी कलई खोल रहे हैं आप। सब आये, आ के टिपिया गये। उन्‍हें क्‍या मालूम कि मधु और दंश की शैली है यह। बेचारे मूढ-मति नहीं जानते कि अदृश्‍य उपहास शत्रु पर सम्‍मुख प्रहार नहीं करता, वह शत्रु को निरस्‍त्र कर देता है।

खूब हवा भरते हो आप, फिर कॉंटा चुभा देते हो। मतलब समझे- पहले वायु-विकार, फिर खट्टी डकार। अभी भी नहीं समझे, समझाता हूँ। आप कहते हैं- ‘निन्‍दक महान हैं’, ध्‍वनि आती है- ‘महान निन्‍दक हैं’।


विवेक जी की यह पोस्‍ट तीन दिन पुरानी है, तीन दिन पुराना मेरा बुखार भी है। आज बुखार से निवृत्‍त हुआ हूँ, सो उस दिन की य‍ह प्रविष्टि आज पोस्‍ट कर रहा हूँ।