सौन्दर्य लहरी आदि शंकर की अप्रतिम काव्य सर्जना व संस्कृत के स्तोत्र साहित्य की अनुपम उपलब्धि है। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है सौन्दर्य लहरी में।

इस ब्लॉग पर अब तक इस रचना के 60 छन्दों का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठीं, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवींग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं कड़ी और चौदहवीं कड़ी के बाद आज प्रस्तुत है सौन्दर्य लहरी (छन्द संख्या 61-65) का हिन्दी काव्यानुवाद।

सौन्दर्य लहरी का हिन्दी काव्यानुवाद

प्रकृत्या‌‌ऽऽरक्तायास्तव सुदति दंतच्छदरुचेः
प्रवक्ष्ये सादृश्यं जनयतु फलं विद्रुमलता
न बिबं तद्बिबं प्रतिफलन रागादरुणितं
तुलामध्यारोढुं कथमिव विलज्जते कलया ॥६१॥
सुभग स्वाभाविक अरुणिमाधर
तुम्हारे अधर पल्लव
कौन ऐसा है तुलित हो
जो अधर की अरुणिमा से
फल जनन से हीन
समता है कहाँ विद्रुमलता की
रंचमात्र कला बराबर
भी न हो सकता खड़ा सम्मुख
बिम्बफल रक्ताभ तेरे अधर दल के
जगत की सब वस्तु अरुणिम
प्राप्त कर तेरी ललाई
गड़ गईं संकोच में और लाज में
हे चारुदशने! 

स्मितज्योत्स्ना जालं तव वदन चंद्रस्य पिबतां
चकोराणामासीदति रसतया चंचु जडिमा
अतस्ते शीतांशोरमृत लहरीमाम्ल रुचयः
पिबंति स्वच्छंदं निशि निशि भृशं कांजिकधिया ॥६२॥
तव वदनविधुस्रवित
मधु ज्योत्सा सुधारस पान करते
हो गयी है चञ्चु जड़िमा
प्राप्त अखिल चकोरकों की
अतः निशि निशि अम्लरुचि
स्वच्छंद
निशिपति सुधालहरी पान करते
जाड्यवारण हित
विमुग्ध चकोर खगगण
हे सुहासिनि चन्द्रवदने!
हे मधुर मधुरस्मिते हे!

अविश्रांतं पत्युर्गुणगण कथाम्रेडनजपा
जपापुष्पच्छाया तव जननि जिह्वा जयति सा
यदग्रासीनायाः स्फटिक  दृषदच्छच्छविमयी
सरस्वत्या मूर्तिः परिणमति माणिक्य वपुषा ॥६३॥
जपा कुसुपोमय तुम्हारी
जननि
जिह्वा विजयिनी हो
अविश्रान्त
स्वभर्तृगुणगणगान में
तल्लीन है  जो
स्फटिक तुल्या छविमयी
वागीश्वरी
आसीन जिस पर
निखरती
माणिक्यवपुषा
अरुणवर्णमयी
जननि हे!

रणे जित्वा दैत्यानपहृत शिरस्त्रैः कवचिभिः
निवृत्तैश्चंडांश त्रिपुरहर निर्माल्य विमुखैः
विशाखेंद्रोपेंद्रैः शशिविशद कर्पूरशकला
विलीयंते मातस्तव वदन तांबूल कबलाः ॥६४॥
जीत दैत्यों को समर में
कवच मुकुटादिक हरण कर
पहुँचते षडवदन इन्द्र उपेन्द्र
सम्मुख त्रिपुरहर के
किन्तु शंभु प्रसाद वंचित
जानते चण्डांश अधिगत
अतः
शशिसम स्वच्छ अति
कर्पूरखंड सुगंध संयुत
वे तुम्हारे वदन के
ताम्बूल कवलों को
मुदितमन
कर लिया करते सकल स्वीकार
शोभाधार मातः!

विपंच्या गायंती विविधमपदानं पशुपते
स्त्वयारब्धे वक्तुं चलितशिरसा साधुवचने
तदीयैर्माधुर्यैरपलपित तंत्रीकलरवां 
निजां वीणां वाणी निचुलयति चोलेन निभृतम् ॥६०॥
भारती
जब वीण पर
त्रिपुरारिगुणगायन  निमग्ना
मधुर स्वर में
’साधु साधु’ बखानती तुम
सिर हिला कर
धन्य वह वाणी मधुरिमा
मंद होता
वीण का स्वर
शारदा लज्जायमाना
चोल में अपनी विपञ्ची
बन्द कर लेतीं गिरा चुपचाप
सुमधुरभाषिणी हे!

क्रमशः—