सौन्दर्य लहरी (स्तोत्र ६६ से ७०) - पाणि से / वात्सल्यवश / जिसको दुलारा हिमशिखर ने / अधरपानाकुलित जिसको / किया स्पर्शित चन्द्रधर ने / मुख मुकुर के वृन्त सम / पकड़ा जिसे सविलास शिव ने / कौन वर्णन कर सकेगा / उस अमोलक / चिबुक का फिर / सत्य ही हैं ललित अनुपम / चिबुक तेरे / चारु-चिबुके!
सौन्दर्य-लहरी संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है। आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है यह काव्य। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है सौन्दर्य-लहरी में। उत्कंठावश इसे पढ़ना शुरु किया था, सुविधानुसार शब्दों के अर्थ लिखे, मन की प्रतीति के लिये सस्वर पढ़ा, और भाव की तुष्टि के लिये हिन्दी में इसे अपने ढंग से गढ़ा। अब यह आपके सामने प्रस्तुत है। ’तर्तुं उडुपे नापि सागरम्’ - सा प्रयास है यह। अपनी थाती को संजो रहे बालक का लड़कपन भी दिखेगा इसमें। सो इसमें न कविताई ढूँढ़ें, न विद्वता। मुझे उचकाये जाँय, उस तरफ की गली में बहुत कुछ अपना अपरिचित यूँ ही छूट गया है। उमग कर चला हूँ, जिससे परिचित होउँगा, उँगली पकड़ आपके पास ले आऊँगा। जो सहेजूँगा,यहाँ लाकर रख दूँगा। पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठीं, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं, चौदहवीं और पन्द्रहवीं कड़ी के बाद आज प्रस्तुत है सोलहवीं कड़ी-

गिरीशेनोदस्तं मुहुरधरपानाकुलतया
करग्राह्यं शंभोर्मुखमुकुरवृन्तं गिरिसुते
कथंकारं ब्रूमस्तव चुबुकमौपम्यरहितम्॥66॥
पाणि से
वात्सल्यवश
जिसको दुलारा हिमशिखर ने
अधरपानाकुलित
जिसको
किया स्पर्शित चन्द्रधर ने
मुख मुकुर के वृन्त सम
पकड़ा जिसे सविलास शिव ने
कौन वर्णन कर सकेगा
उस अमोलक
चिबुक का फिर
सत्य ही हैं ललित अनुपम
चिबुक तेरे
चारु-चिबुके!
[post_ad]
भुजाश्लेषान्नित्यं पुरदमयितुः कंटकवती
तव ग्रीवा धत्ते मुखकमलनालश्रियमियम्
स्वतः श्वेता कालागुरुबहुलजम्बालमलिना
मृणालीलालित्यं वहति यदधो हारलतिका॥67॥
ग्रीव तेरी
शंभु के भुजश्लेष से
कंटकवती जो
मुख-कमल-नाल-सी
जो श्रीमयी, सुषमामयी है
स्वतः श्वेता
किन्तु कालागरु विलेपित
श्यामवर्णी
विलसती है ग्रीव में
अभिराम मुक्ताहार लतिका
परम रम्य मृणालिनी का
वह किए लालित्य धारण
भासती अत्यंत रुचिरा ग्रीव तेरी
चारुग्रीवे!
गले रेखास्तिस्रो गतिगमकगीतैकनिपुणे
विवाहव्यानद्धप्रगुणगुणसंख्याप्रतिभुवः
विराजन्ते नानाविधमधुररागाकरभुवां
त्रयाणां ग्रामाणां स्थितिनियमसीमान इव ते॥68॥
कंठ की त्रय रेख राजित
यों सुशोभित हो रही है
यथा वैवाहिक घड़ी की
मांगलिक सूत्रावली हो त्रिगुण गुण ग्रथिता
तुम्हारे प्राण वल्लभ की पिन्हाई
या कि
नानाविधि मधुर रागादि की
प्रकटस्थली है
राग त्रय
गांधार माध्यम षड्ज की
अथवा नियमिका
ग्राम त्रय सीमा सदृश हो
गतिगमकगीतैकनिपुणे!
मृणालीमृद्वीनां तव भुजलतानां चतसृणां
चतुर्भिः सौन्दर्यं सरसिजभवः स्तौति वदनैः।
नखेभ्यः संत्रस्यन् प्रथममथनादन्धकरिपो-
श्वतुर्णां शीर्षाणां सममभयहस्तार्पणधिया॥69॥
चार मृदु भुजवल्लरी
तेरी मनोज्ञ मृणालिनी-सी
चतुर्वदन विरंचि जिसके
अविर्वच लावण्य का नित
गान करते हैं
उन्हें है त्रास
अंधक प्राणहर (शिव) का
कर दिया विधिमुख प्रथम
नख धात्र से जिसने विदारित
निज चतुर्मुख रक्षणार्थ
प्रयास है यह स्तवन तेरा
जो विरंचि बखानते
तव बाहुसुषमा
अभयदा हे!
नखानामुद्योतैर्नवनलिनरागं विहसतां
कराणां ते कान्तिं कथय कथयामः कथमुमे
कयाचिद्वा साम्यं भजतु कलया हन्त कमलं
यदि क्रीडल्लक्ष्मीचरणतललाक्षारसचणम्॥70॥
हम तुम्हारे
युगल करतल कान्ति का
किस भाँति
वर्णन कर सकेंगे
नवल कुवलय राग का भी
जहाँ संस्थित
पाणितल की मंजु नख अवली
सदा उपहास करती
यदि कथंचित
साम्य ही उसका
कहीं करता समुद्धृत
स्वलीलामग्न
लक्ष्मीचरणतललाक्षारुणंकित
यदि कहीं अम्बोजदल हो
स्यात् वैसा ही
उमे हे!
COMMENTS