सौन्दर्य लहरी संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है। आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है यह काव्य। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है सौन्दर्य-लहरी में।

उत्कंठावश इसे पढ़ना शुरु किया था, सुविधानुसार शब्दों के अर्थ लिखे, मन की प्रतीति के लिये सस्वर पढ़ा, और भाव की तुष्टि के लिये हिन्दी में इसे अपने ढंग से गढ़ा। अब यह आपके सामने प्रस्तुत है। पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठीं, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवींग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं, चौदहवीं, पन्द्रहवीं और सोलहवीं कड़ी के बाद आज प्रस्तुत है सत्रहवीं कड़ी।

सौन्दर्य लहरी का हिन्दी काव्यानुवाद

समं देवि स्कन्दद्विपवदनपीतं स्तनयुगं 
तवेदं नः खेदं हरतु सततं प्रस्नुतमुखम्।
यदालोक्याशंकाकुलितहृदयो हासजनकः
स्वकुम्भौ हेरम्बः परिमृशति हस्तेन झटिति॥71॥
संग ही
युग तनय
षडमुख गजवदन
पय स्रवित तेरे कुच युगल का पान करते
जान जिनको भाल ही निज
गणाधिप शंकित
स्वशिर पर
फेर अपना शुण्ड
तुमको हैं बना देते हसित मुख
वे तुम्हारे दुग्ध उर्मिल
अम्ब युगल उरोज पयमुख
खिन्नता मेरी हरें
उत्तुंगपीनपयोधरे हे !

अमू ते वक्षोजावमृतरसमाणिक्यकुतुपौ
न संदेहस्पन्दो नगपतिपताके मनसि नः।
पिबन्तौ तौ यस्मादविदितवधूसंगरसिकौ
कुमारावद्यापि द्विरदवदनक्रौंचदलनौ॥72॥
निसंदेह
उरोज तव
माणिक्यघट अमृतभरित हैं
पी जिन्हें
अब तक तुम्हारे
द्विरद आनन स्कंद युगसुत
हैं कुमार बने
सदा रमणीरमण रस से
विरत हैं
कामिनी संगम न करता स्पर्श
हे नगपतिपताके !

वहत्यम्ब स्तम्बेरमदनुजकुम्भप्रकृतिभिः 
समारब्धां मुक्तामणिभिरमलां हारलतिकाम्।
कुचाभोगो बिम्बाधररुचिभिरन्तःशबलितां
प्रतापव्यामिश्रां पुरदमयितुः कीर्तिमिव ते॥73॥ 
जो गजासुर कुम्भजनिता
अमल मौक्तिकहार लतिका
सुललिता धारण किये है
देवि!
तेरा उरजमंडल
वही बिम्बाधर सुछाया से
तुम्हारे मध्यप्रान्तर
बीच दर्शित हो रहा है
अरुण अरुण विभा सुरंजित
लग रहा है
पुरदमन शशिभाल
कीर्ति प्रताप का ही
हो गया हो रचित
सम्मिश्रण मनोज्ञ
सुमध्यमे हे !

तव स्तन्यं मन्ये धरणिधरकन्ये हृदयतः 
पयःपारावारः परिवहति सारस्वतमिव।
दयावत्या दत्तं द्रविडशिशुरास्वाद्य तव यत्
कवीनां प्रौढानामजनि कमनीयः कवयिता॥74॥
जो तुम्हारे उरज से
द्रवमान निर्मल
दुग्ध धारा हृत्तलागत
उसे सारस्वत महोदधि
मानता मैं
हो दयाद्रि
जिसे कराया पान तुमने
द्रविड़सुत को    (द्रविड़सुत= शंकराचार्य)
श्रेष्ठ कविजन बीच
विश्रुत हो गया वह
शैलबाले !

हरक्रोधज्वालावलिभिरवलीढेन वपुषा
गभीरे ते नाभीसरसि कृतसंगो मनसिजः।
समुत्तस्थौ तस्मादचलतनये धूमलतिका 
जनस्तां जानीते तव जननि रोमावलिरिति॥75॥ 
शंभु की क्रोधाग्निज्वालामाल से
परिदग्ध काया
छिपा जा
गंभीर तेरी नाभिसरसी बीच
मनसिज
धूमलतिका नाभि गंभीरा वहिर्गत
हो गयी जो
जगत कहता है
वही रोमावलि तव
अचल तनये !